रेज़ा रीड
5 अक्टूबर, 1997 अरकांसा, अमेरिका में जन्म। ड्यूक विश्व विद्यालय, नार्थ केरोलाइना, अमेरिका में तीसरे साल की छात्रा। हिंदी कक्षा में दूसरा साल। भारत नहीं गईं, लेकिन जाना चाहती है। बॉस्केटबाल में गहरी दिलचस्पी। कभी खेलती हैं कभी देखती हैं। मज़े के लिए लिखती हैं।
Link दोस्ती के क्षण
आज मुझे अट्ठानवे प्रतिशत मिले
और यह अच्छा महसूस करवाता है
ऐसा महसूस होता है जैसे कुछ
गर्व करने लायक है
यह मुझे मान्यता देता है।
काश मैं बता सकती
कि मैंने यही उम्मीद किया था
लेकिन मैं नहीं कह सकती
काश मैं डींग मार सकती
कि मैंने थोड़ा पढ़ा और मुझे ज़्यादा मिला
लेकिन सच तो यह है
मैंने रात के अँधेरे में
लगातार दीपक जलाए और पढ़ती रही।
लेकिन यह अट्ठानवे प्रतिशत काफी नहीं
या अंतिम नहीं है
कल फिर परीक्षा होगी
मुझे फिर अट्ठानवे प्रतिशत चाहिए होंगे
मुझे नहीं मालूम अगर मैं
यह करिश्मा दुबारा कर सकूंगी
ये परीक्षाएं मुझे भस्म कर देंगी
अगर मैं इसे दुबारा करूँ
लेकिन मुझे और कितने अट्ठानवे प्रतिशत चाहिए?
जो मेरे लिए, मेरी पढ़ाई के लिए
मेरे विश्वविद्यालय के लिए पर्याप्त हों
शायद यह कभी नहीं ख़त्म होगा।
जब तक मैं साँस लूँगी
जब तक दुनिया में रहूँगी
तब तक मैं साबित करने की कोशिश करूँगी
कि मैं होशियार और योग्य हूँ
लेकिन मुझे और कितने अट्ठानवे प्रतिशत चाहिए?
जबकि ज्यादातर लोगों के अट्ठानवें प्रतिशत
जैसे ताज़ी हवा में सांस लेना
जैसे राहत की सांस लेना है
लेकिन मेरे अट्ठानवे प्रतिशत
जैसे मेरे कंधे पर बोझ है
एक ऐसा चक्र जो मुझे थका देगा
ये मेरे दर्द का आइना है।
लेकिन आज मुझे अट्ठानवे प्रतिशत मिले
मैं कोशिश कर रही हूँ कि
इसे कायम रखूँ
ये मेरे विश्वविद्यालय के लिए पर्याप्त हों
फिर भी एक आशा है, मुझे
लेकिन कल के अट्ठानवे प्रतिशत रहस्य हैं।
Link अट्ठानवे प्रतिशत
आज मुझे अट्ठानवे प्रतिशत मिले
और यह अच्छा महसूस करवाता है
ऐसा महसूस होता है जैसे कुछ
गर्व करने लायक है
यह मुझे मान्यता देता है।
काश मैं बता सकती
कि मैंने यही उम्मीद किया था
लेकिन मैं नहीं कह सकती
काश मैं डींग मार सकती
कि मैंने थोड़ा पढ़ा और मुझे ज़्यादा मिला
लेकिन सच तो यह है
मैंने रात के अँधेरे में
लगातार दीपक जलाए और पढ़ती रही।
लेकिन यह अट्ठानवे प्रतिशत काफी नहीं
या अंतिम नहीं है
कल फिर परीक्षा होगी
मुझे फिर अट्ठानवे प्रतिशत चाहिए होंगे
मुझे नहीं मालूम अगर मैं
यह करिश्मा दुबारा कर सकूंगी
ये परीक्षाएं मुझे भस्म कर देंगी
अगर मैं इसे दुबारा करूँ
लेकिन मुझे और कितने अट्ठानवे प्रतिशत चाहिए?
जो मेरे लिए, मेरी पढ़ाई के लिए
मेरे विश्वविद्यालय के लिए पर्याप्त हों
शायद यह कभी नहीं ख़त्म होगा।
जब तक मैं साँस लूँगी
जब तक दुनिया में रहूँगी
तब तक मैं साबित करने की कोशिश करूँगी
कि मैं होशियार और योग्य हूँ
लेकिन मुझे और कितने अट्ठानवे प्रतिशत चाहिए?
जबकि ज्यादातर लोगों के अट्ठानवें प्रतिशत
जैसे ताज़ी हवा में सांस लेना
जैसे राहत की सांस लेना है
लेकिन मेरे अट्ठानवे प्रतिशत
जैसे मेरे कंधे पर बोझ है
एक ऐसा चक्र जो मुझे थका देगा
ये मेरे दर्द का आइना है।
लेकिन आज मुझे अट्ठानवे प्रतिशत मिले
मैं कोशिश कर रही हूँ कि
इसे कायम रखूँ
ये मेरे विश्वविद्यालय के लिए पर्याप्त हों
फिर भी एक आशा है, मुझे
लेकिन कल के अट्ठानवे प्रतिशत रहस्य हैं।
आन्या गुप्ता
कैलिफ़ोर्निया में जन्म। ड्यूक यूनिवर्सिटी में हिंदी क्लास की प्रथम वर्ष की छात्रा। इसके अलावा बायोलॉजी और पर्यावरण विज्ञान का अध्ययन भी कर रही हैं। हिंदी और भारतीय इतिहास में गहरी रुचि। सम्प्रति – सेनफ्रांस्सिको, अमेरिका में निवास।
Link भारत में अस्पृश्यता वर्तमान और 1947 के संदर्भ में
जब मैं भारत गर्मियों की छुट्टियों में जाती थी, तो नानी माँ और नाना के घर हमेशा एक जमादारनी आती थी। वह सारे घर में झाड़ू-पोछा और साफ सफाई करती थीं। उसके खाने-पीने के बर्तन अलग से रखे होते थे और उसी में उसको खाना देते थे। जब मैंने अपनी मम्मी से पूछा क्यों रजनी ऑन्टी को एक दूसरे गिलास में पानी मिलता है, तो उन्होंने समझाया कि सारे बाहर काम करने वाले लोगों के बर्तन अलग ही होते हैं। मम्मी ने फिर बताया कि जब वह हिमाचल के एक छोटे गाँव में रहती थीं, वहाँ छुआछूत का भेदभाव होता था और अछूत जाति के लोगों को घर के अंदर प्रवेश करना निषेध था। उन्हें बाहर ही खाना दिया जाता था। मैं सोचती थी, “एक इंसान और दूसरे इंसान के बीच में इतना फर्क क्यों है?”
लेकिन, मुझे 2020 में पता लगा कि इन लोगों की हालत उनकी जाति की वजह से है। ड्यूक यूनिवर्सिटी की एक “भारतीय इतिहास” की क्लास में हमने जातिवाद के बारे में पढ़ा। हमने गाँधी जी और आम्बेडकर जी के बारे में शोध भी किया। हमने दलित साक्षात्कार वीडियो देखे और स्कवेंजर्स के बारे में भी पढ़ा। मुझे इस बात की हैरानी थी कि भगवान की बनाई हुई दुनिया में इतना भेदभाव कैसे हो सकता है। यदि हर मानव समान है, फिर भी उनके बीच में इतना भेद क्यों है? भारत की स्वतंत्रता के कई वर्षों के बाद, अभी तक भी दलितों के साथ छुआछूत और भेदभाव होता है और उनको धार्मिक स्थानों में अंदर नहीं आने देते हैं। यह हिंदू धर्म की कुरीतियाँ हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं। समय के साथ ही जातिवाद ख़तम होगा। भारतीय समाज में कई महान पुरुष हुए हैं जिन्होंने जातिवाद को ख़तम करने में योगदान दिया है, जैसे भीमराव आम्बेडकर जी। आम्बेडकर जी ने दलितों के अधिकारों के लिए बहुत संघर्ष किया।
भीमराव रामजी आम्बेडकर 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश में पैदा हुए थे। उनकी जाति महार थी और वे अछूत थे। जब आम्बेडकर जी स्कूल में थे, उन्हें और दूसरे दलित बच्चों को अलग बैठाया जाता था। जब उन्हें पानी पीना होता था, तो उन्हें दूसरों से पूछना पड़ता था ताकि वे पानी के घड़े को ना छू सकें। बचपन के भेदभाव की भावना ने उनके मन को बदल दिया था। आम्बेडकर जी पहले दलित थे जिन्होंने अपनी पढ़ाई बॉम्बे यूनिवर्सिटी से की। उन्होंने वहाँ से अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की डिग्री ली। आम्बेडकर जी 22 साल की आयु में अमेरिका आये और कोलंबिया यूनविर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी की। उन्होंने उसके बाद लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में शोध किया। आम्बेडकर जी ने भारतीय कांग्रेस में काम किया और वे देश के विभाजन को सही मानते थे। जब ब्रिटिश राज से भारत को स्वतंत्रता मिल गयी, तो आम्बेडकर जी को कानून मंत्री बनाया गया। उन्होंने देश का नया संविधान लिखा जिसमें दलित आरक्षण को उचित बताया, भेदभाव प्रतिबंध, धर्म की स्वतंत्रता और अस्पृश्यता के उन्मूलन पर ज़ोर दिया। लेकिन आज भी भारत में स्वतंत्रता के सत्तर साल बाद दलितों को छुआछूत से मुक्ति नहीं मिली है (ब्रिटानिका.कॉम की वेबसाइट से साभार)।
मोहनदास करमचंद गाँधी, पोरबंदर गुजरात, अक्टूबर 2, 1869 में पैदा हुए थे और वे बनिया जाति के थे। लंदन में उन्होंने कानून की पढ़ाई की और उसके बाद भारत और साउथ अफ्रीका में वकालत भी की। जब वे साउथ अफ्रीका में थे, गाँधी जी ने देखा कि वहाँ कैसे भारतीय लोगों की बेइज़्ज़ती होती थी। गाँधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह को कैसे अपनाना है लोगों को समझाया और वे चाहते थे कि भारतीयों को भी वैसे ही अधिकार मिलें जैसे गोरे लोगों के पास थे। जब गाँधी जी भारत वापस आये तो वे भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़े। भारतीय कांग्रेस में गाँधी जी ने मोहम्मद अली जिन्ना के साथ काम किया और खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया ताकि मुसलमान और हिंदू मिलकर ब्रिटिश राज को भारत से निकाल सकें (हिस्ट्री.कॉम की वेबसाइट से साभार)। आम्बेडकर जी और गाँधी जी ने एक ही कांग्रेस में काम किया, परन्तु छुआछूत के विषय में उनकी विचारधाराएँ अलग थी। गाँधी जी मानते थे कि सभी जातियों को अपना-अपना काम करना ही चाहिए जिससे देश को एकजुट और शांतिपूर्ण बनाया जा सके। गाँधी जी का विचार था कि कोई भी काम बड़ा या छोटा नहीं होता है और जो जिस काम को करता है, उसका सम्मान होना ही चाहिए। भंगी के काम को नीचा नहीं मानना चाहिए। गाँधी जी अपने घर का काम खुद करते थे, यहाँ तक कि शौचालय भी खुद ही साफ करते थे क्योंकि उनकी नज़र में कोई काम अच्छा या बुरा नहीं था। गाँधी जी अस्पृश्यता को गलत तो मानते थे, परन्तु जातिवाद तो हिंदू धर्म का आधार है। (एलेनोर ज़ेलियट की किताब से साभार : अछूत से दलित तक : आम्बेडकर आंदोलन पर निबंध)
आम्बेडकर जी की विचारधारा भिन्न थी। वे चाहते थे कि दलितों की बेइज़्ज़ती समाप्त हो, उन्हें स्कैवेंजर तथा गंदे काम नहीं करने पड़े और ऊँची जाति के समान अधिकार मिलें। वे चाहते थे कि दलितों को शिक्षा और राजनीति के प्रवेश से सामाजिक गतिशीलता बढ़े और उनको स्वतंत्रता मिल जाये। आम्बेडकर जी को हिंदू धर्म पसंद नहीं था, क्योंकि उसमें भेदभाव था। दलितों को मंदिर में आने नहीं दिया जाता था इसलिए आम्बेडकर जी ने स्वयं बौद्ध धर्म चुन लिया था। वह चाहते थे कि जातिवाद को समाप्त किया जाये और दलितों को वैसे ही आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकार मिलें जैसे ब्राह्मण और ऊँची जाति के लोगों को मिलते थे। उन्होंने कहा था कि “मुझे हिंदू जाति में एक अछूत पैदा होने का दुर्भाग्य था, लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं हिंदू नहीं मरूँगा”। 1932 में ब्रिटिश राज ने देखा कि कैसे दलितों के साथ भारतीय समाज में भेदभाव हो रहा था और इसके कारण उन्होंने अछूत जाति के लिए एक अलग निर्वाचक मंडल प्रस्तावित किया। इस प्रस्ताव में दलितों और अछूत लोगों को सत्तर साल के लिए दूसरी जातियों से राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। गाँधी जी के विचार से यह प्रस्ताव हिंदू धर्म और कांग्रेस में एक विभाजन कर सकता था। आम्बेडकर जी को यह कम्युनल अवार्ड बहुत अच्छा लगा, इसके कारण दलितों को सामाजिक गतिशीलता और राजनीतिक स्वतंत्रता मिल पाती। विरोध में गाँधी जी छै दिन के लिए भूख हड़ताल पर रहे। इसकी वजह से ब्रिटिश ने दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल नहीं बनाया और येरवदा जेल में जहाँ गाँधी जी थे, पूना पैक्ट बना। उसके अनुसार अछूत लोगों को सामान्य मतदाता में ही आरक्षण दिया गया और उन्हें अलग प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया (ब्रिटानिका.कॉम की वेबसाइट से साभार)। मैं सोचती हूँ कि अगर दलितों को अलग प्रतिनिधित्व का अधिकार मिला होता, तो आज उनकी हालत शायद बेहतर होती। पूना पैक्ट के कारण, अनुसूचित जातियों को सरकार में आरक्षण मिलता है लेकिन अलग निर्वाचक मंडल नहीं।
दुनिया में 260 मिलियन दलित हैं और 166,635,700 दलित भारत में हैं। भारतीय कानून में लिखा है कि दलितों के साथ भेदभाव और हिंसा निषेध है।
भारतीय गाँवों में 70 फीसदी दलित महिलाऐं पढ़ी लिखी नहीं हैं और ग्रामीण स्थानों में 1/3 सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को अलग बैठना पड़ता है। जैसे आम्बेडकर जी को करना पड़ा था, वैसे ही आज भी दलित बच्चों के साथ भेदभाव होता है। ग्रामीण स्थानों में 33 फीसदी सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता दलित घरों में नहीं जाते और 70 फीसदी गाँवों में ऊँची जाति के लोग साथ खा नहीं सकते (ओवर-कमिंग वायलेंस। ऑर्ग से साभार)। अगर आप भारतीय अखबार खोलेंगे, तो दलितों के खिलाफ हिंसा की कई ख़बरें मिलेंगी।
हिंदू धर्म की कमज़ोरी के कारण ही आज भी दलितों के साथ भेदभाव होता है। हिंदू धर्म में जातपात के अनुसार काम का विभाजन किया गया था। इसलिए जो सबसे नीची जाति में आते हैं, उन्हें मानवीय मल, मरे हुए जानवर, सीवर और सेप्टिक टैंक इत्यादि के काम करने पड़ते हैं। ऊँची जातियों के हिंसा के डर से, भंगी लोगों के पास और कोई विकल्प नहीं है।
अक्सर स्कैवेंजर्स के पास जूतें, मास्क, और दस्ताने भी नहीं होते हैं। भारतीय सरकार ने 2013 में “मैनुअल स्कैवेंजर्स और उनके पुनर्वास अधिनियम के रूप में रोजगार का निषेध” को कानून बनाया। इस कार्यक्रम के अनुसार सरकार ने स्कवेंजर्स के लिए नगद सहायता, उनके बच्चों के लिए छात्रवृत्ति, आवास, वैकल्पिक आजीविका और अन्य कानूनी सहायता दी (विकिपीडिया से साभार)। इसके बावजूद भी समाज में कोई बदलाव नहीं आया है। अभी भी ग्रामीण स्थानों में दलितों की परछाई भी गंदी मानी जाती है और उनके लिए अच्छा काम ढूंढ़ना बहुत मुश्किल होता है। जब तक लोगों की मानसिकता में बदलाव नहीं आएगा तब तक जातिवाद और छुआछूत ख़तम नहीं होगा। दलितों की इतनी बेइज़्ज़ती के बाद भी बहुत दलितों ने शिक्षा का इस्तेमाल करके अपनी ज़िन्दगी बेहतर की है। आम्बेडकर जी ने जैसे पढ़ाई सें अपनी ज़िन्दगी को बदला, वैसे ही कई दलितों ने भी किया और कर रहे हैं।
शिक्षित दलितों को सामाजिक गतिशीलता मिल सकती है, लेकिन स्कूलों में अभी भी भेदभाव होता है। मोतीलाल नेहरू कॉलेज में प्रोफ़ेसर कौशल पंवार संस्कृत पढ़ाती हैं। वे वाल्मीकि जाति में पैदा हुईं और सारी ज़िन्दगी उनके साथ भेदभाव हुआ। स्कूल में उनको अलग बैठाया जाता था और वे वहाँ का पानी भी नहीं पी सकती थीं। शिक्षकों को उन पर गुस्सा आता था क्योंकि वह संस्कृत पढ़ना चाहती थीं। पंवार ने कभी अपने सपने नहीं छोड़े और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से संस्कृत में पीएचडी की। पंवार जब कॉलेज में पढ़ रही थीं तो उनके सहपाठी उनका मज़ाक उड़ाते थे और यह उनके लिए बहुत मुश्किल था। पंवार ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में भाषण दिए और प्रसिद्ध टीवी कार्यक्रम “सत्यमेव जयते” में भी आईं (लाइव मिंट.कॉम से साभार)। उन्हें अपनी कहानी और अपनी पृष्ठभूमि पर गर्व है।
मायावती भी एक दलित नेता का उदाहरण हैं जिन्होंने शिक्षा के माध्यम से सामाजिक गतिशीलता हासिल की (ब्रिटानिका.कॉम की वेबसाइट से साभार)। वह भारत में पहली महिला अनुसूचित जाति की मुख्यमंत्री थीं। हालांकि शिक्षा के बाद कौशल पंवार और मायावती जैसे लोगों को बेहतर ज़िन्दगी मिली लेकिन सब दलित ऐसा नहीं कर पाते हैं। कॉलेज में आरक्षण के कारण ऊँची जाति के लोग दलितों की बेइज़्ज़ती करते हैं। 2016 में रोहित वेमुला ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद में आत्महत्या की क्योंकि उनकी जाति के कारण उन्हें उनके सहपाठियों से अलग कर दिया गया था। रोहित ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि “मेरा जन्म ही मेरा घातक हादसा है… जानिए कि मैं जिंदा रहने से मरा हुआ ज्यादा खुश हूँ।” कॉलेज में जातिवाद आम है और भेदभाव भी। आरक्षण के कारण दलितों को कॉलेज में प्रवेश तो मिल जाता है, परन्तु वह कभी अपने सहपाठियों के बराबर नहीं हो पाते (वायर.कॉम से साभार)।
दलित कविताएँ बहुत मशहूर हैं, और डॉक्टर तुकाराम लिखते हैं :
गौर से देखिये हाल बेहाल है।
भूख से हो रहे लोक कंकाल हैं।
जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर
रौंदने पर उतारू बड़े लाल हैं।
लोग हारे-थके बोझ से
जो दबे दंशने को उन्हें अर्थ के व्याल हैं।
जातिवाद हिंदू धर्म की कमज़ोरी है। आम्बेडकर जी ने बौद्ध धर्म इसलिए अपनाया था क्योंकि हिंदू धर्म में दलितों का कोई मूल्य नहीं था। आज भी सरकार जो भी करे, हमें हमारी मानसिकता बदलनी होगी। हमको अपनी पीढ़ियों को सिखाना पड़ेगा कि हर इन्सान बराबर है चाहे आप ठाकुर हो या वाल्मीकि। भारतीय लोगों की विचारधारा बदलने के लिए सौ साल लग जायेंगे। लेकिन अच्छी शिक्षा से हम भारत को अच्छे के लिए बदल सकते हैं ताकि हर एक मनुष्य को बराबर अधिकार मिलें।
ऐश्टन कार
मेरा नाम ऐश्टन है। मेरी उम्र उन्नीस है। मैं ड्यूक विश्वविद्यालय में दूसरे साल की छात्रा हूँ, और मैं धर्म और एशियाई संस्कृति पढ़ती हूँ।
Link केटसाल पक्षी की दंतकथा
यह कहानी Quetzal (केटसाल) की दंतकथा है। यह पक्षी ग्वाटेमाला का राष्ट्रीय पक्षी है, और वह
बहुत साल पहले, एक दंतकथा के अनुसार, ग्वाटेमाला में जहाँ माया साम्राज्य था, वहाँ एक जनजाति का नाम कीचे था। जनजाति का मुखिया बहुत बलवान और नेक था, लेकिन उनके कोई बच्चा नहीं था। आखिरकार, जब वह बहुत बूढ़ा हुआ ,तब उसके एक बेटा हुआ। उसने अपने बेटे का नाम केटसाल रखा। जिस दिन केटसाल पैदा हुआ, एक हमिंग-बर्ड उसके घर के बाहर थी, और उसने एक पंख शिशु केटसाल के पालने में रखा।
मुखिया ने बड़े-बुजुर्गों से पूछा, “इसका क्या मतलब है?”
उन्होंने कहा, “यह सौभाग्य का चिह्न है, इससे केटसाल अमर रहेगा और कभी नहीं मरेगा।”
उसके माता-पिता ने इस पंख को एक हार में पिरोकर केटसाल के गले में डाल दिया, और यह सुनकर जनजाति आनन्दित हुई; तथापि, मुखिया का भाई ईर्ष्या और गुस्से से भर गया, क्योंकि अगर केटसाल पैदा नहीं हुआ होता, तो वह अगला मुखिया बनता।
कई वर्षों बाद, केटसाल एक मजबूत जवान आदमी बना ,जो एक अद्भुत मुखिया बनने के लिए तैयार था। इसी समय, एक और जनजाति ने केटसाल की जनजाति पर हमला किया। केटसाल ने लड़ाई का नेतृत्व किया। केटसाल के मामा ने उम्मीद की, कि शायद केटसाल लड़ाई में मारा जाए ,जिससे वह खुद मुखिया बन जाए। भले ही केटसाल लड़ाई के मैदान में था, उसे कोई चोट नहीं आई। उसका ईर्ष्यालु मामा यह महसूस करता था कि यह हमिंग-बर्ड के पंख की वजह से हुआ है। एक रात, उसने सोते समय केटसाल से इसे चुरा लिया।
अगले दिन, केटसाल जंगलों में शिकार करने के लिए गया, और उसका दुष्ट मामा उसका पीछा करने लगा। जब केटसाल ने देखा कि वह उसके पीछे मामा आ रहा है, तो वह छुप गया, और तुरंत उसके मामा ने उसकी छाती पर तीर मारा। केटसाल, अपने हार के बिना असुरक्षित था, वह भूमि पर गिर गया और जहाँ उसे तीर लगा था ,रक्त उसकी छाती से निकलकर सब जगह फैल गया। उसकी छाती रक्त से लाल हो गई। साफ़ था कि मामा उसकी मृत्यु पर खुश थे, तभी कुछ अजीब होने लगा केटसाल एक पक्षी में बदलने लगा उसकी छाती लाल हो गई ।क्योंकि वह घास पर गिरा था; इसलिए उसके पंख भी घास की तरह हरे होने लगे। तब से ग्वाटेमाला के लोग यह कहानी केटसाल के रंग समझाने के लिए सुनाते हैं।
जब मैं बच्ची थी, तब मैंने ग्वाटेमाला की यात्रा की। मैंने केटसाल हर जगह देखा – सिक्कों पर, तस्वीरों पर, झंडों पर। हमेशा मैंने सोचा कि वह बहुत अद्भुत पक्षी था। सालों तक, जब मैंने ग्वाटेमाला में अधिक से अधिक समय बिताया, मुझे केटसाल प्यारा लगा। जब मेरे पसंदीदा पक्षी के बारे में पूछा गया, तो मैंने हमेशा जवाब दिया ‘केटसाल’ – इस तथ्य के बावजूद कि कोई भी इस दुर्लभ पक्षी के बारे में कभी नहीं जानता था और इसके लिए मेरे प्रेम के बावजूद, मैंने व्यक्तिगत रूप से कभी भी केटसाल को नहीं देखा है, क्योंकि उन्हें कैद में रखना अवैध है और उसे देखने के लिये मुझे ग्वाटेमाला के जंगल में जाना पड़ेगा।
मैं ग्वाटेमाला का एक सिक्का अपने साथ रखती हूँ ,जिस पर केटसाल का चित्र है और मज़े की बात है कि ग्वाटेमाला की मुद्रा का नाम केटसाल है। इस तरह से मैं अपने दूसरे घर, ग्वाटेमाला से जुड़े रहने में सक्षम हूँ।
रिया डांगे
कैलिफ़ोर्निया में जन्म। माँ-पिता भारतवंशी हैं। ड्यूक विश्वविद्यालय में न्यूरो साइंस पढ़ रही हैं और हिंदी की दूसरे साल की छात्रा हैं। अनेक भाषाएँ सीखने में रुचि है। हिंदी, अंग्रेज़ी के अलावा मराठी, स्पैनिश, डेनिश और केच्वा भाषाएँ जानती हैं। डॉक्टर बनने का स्वप्न।
Link अमेरिका में औरतों की दशा
रोवन पोप के ये वाक्य एक खड़े हुए विमान से गूँजे, स्पीकर से बाहर आए और मेरे दिल को छू गए। “तुमको आदमी से दुगना बेहतर होना पड़ेगा, उनके आधे तक पहुँचने के लिए।” रोवन पोप अमेरिकन टेलीविज़न ड्रामा में काम करते हैं। ड्रामा का नाम “स्कैंडल” है। हालांकि रोवन कल्पित व्यक्ति है, परन्तु उनका संदेश बिलकुल सत्य है।
खड़े विमान के स्थल में, वे अपनी बेटी ओलिविया को डाँट रहे हैं। ओलिविया प्रभावशाली पोलिटिकल “क्राईसिस मैनेजर” है। रोवन उसको बताते हैं कि वह अपने जीवन में अच्छे चुनाव नहीं कर रही है और उसको याद दिलाते हैं कि उसको ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी अगर वह सफल होना चाहती है। वह औरत है, इसलिए समाज उसे हमेशा अनदेखा और अपमानित करेगा। जो आदमी इतने क़ाबिल नहीं हैं, अनुभवी नहीं हैं या पारंगत नहीं हैं वह औरतों का स्थान छीन रहे हैं। यह व्यवस्था ही औरतों के ख़िलाफ़ वायर्ड है, अत: उसको आदमी से दुगना बेहतर होना पड़ेगा सफल होने के लिए।
जब मैं छोटी थी, मेरे माँ-बाप ने मुझे यह सिखाया। एक औरत पर हमेशा सवाल उठाया जाता रहेगा, चाहे वह कुछ भी कर ले। अगर वह क़ाबिल है और अपनी क्षमता के बल पर नौकरी करती है। मेहनती है, तो भी आदमी उस पर भरोसा नहीं करेगा। मेरे स्कूल के डिबेट टूर्नामेंट के दौरान, मेरे पिता-जी मुझसे कहा करते थे, “तुमको एड़ी चोटी का बल लगाना पड़ेगा। बात यह नहीं है कि तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी कितना अच्छा है; तुमको इतना बेहतर होना चाहिए कि तुम दोनों के बीच कोई प्रतियोगिता ना हो।” मैं उनके इस संदेश का पालन करने लगी उसकी बातों के महत्त्व को समझने के पहले से मैं जब बड़ी हुई तो मैंने औरतों का संघर्ष समझना शुरू किया।
एक औरत को, हर जगह संतुलन बिठाना पड़ेगा, चाहे वह काम हो या मित्रता। उसको ताक़तवर होना पड़ेगा, लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं, नहीं तो लोग उसको “घमंडी” बुलाएंगे। उसको विनम्र भी होना पड़ेगा, लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं, नहीं तो लोग उसको “कमज़ोर” बुलाएंगे। मैंने बार-बार सुना कि मुझे आदमी से ज़्यादा दयालु और सहनशील होना चाहिए। साथ ही मैं निराश होती हूँ कि जब एक आदमी अपनी राय बताता है और कार्य क्षमता का प्रदर्शन करता है तो, उसे सम्मान मिलता है; मगर जब एक औरत वही करती है, उसको सम्मान के स्थान पर निंदा और आलोचना मिलती है।
यह फ़र्क़ साफ़ है नवम्बर 2016 में, जब अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ। हिलेरी रॉडम Ïक्लटन पहली औरत थी जिसे चुनाव में एक बड़ी पार्टी ने चुना। इलेक्शन प्रक्रिया के दौरान, उनको बहुत आलोचना और पक्षपात के ख़िलाफ़ लड़ना पड़ा। उनके आलोचक बार-बार उनकी आवाज़ की हँसी उड़ाते थे। कहते थे कि उसकी “तीखी” आवाज़ एक डाँटने वाली पत्नी की तरह है (रीव्ज़ 2015)। उसकी प्रस्तुति का हर दृष्टिकोण से विश्लेषण हुआ या उनके टोन, उनकी “भद्दी” हँसी और उनके रंगीन पैंटसुट्स का भी (रीव्ज़ 2015)।
जब Ïक्लटन कोई राय बनाती थीं, उनकी आलोचना हुई अपनी बात के लिए और अपने बातचीत के तरीक़े के लिए भी। “वे क्या बोलती हैं, यह छोड़िए,” फ़्रैंक लंटज, जो एक चुनाव विश्लेषक है, कहता है, “उसकी बातचीत के तरीक़े को सुनिए… उसकी आवाज़ लोगों को चिढ़ाती है क्योंकि उनको लगता है कि हिलेरी लेक्चर दे रही है।” लंटज के शब्द उसकी मनोवृत्ति दिखाते हैं। जब एक Ïक्लटन जैसी औरत अपने सुशिक्षित और दृढ़ विचार लोगों को बताती है, तो लंटज को लगता है कि वह स्कूली बच्चा है और लेक्चर सुन रहा है। दूसरे शब्दों में, Ïक्लटन की बुद्धि लंटज को त्रस्त करती है।
हिलेरी Ïक्लटन ऐसी बात में अकेली नहीं हैं। उनकी जैसी बहुत सारी महिलाएँ इस समस्या का सामने करती हैं। 2017 में “लीन-इन” और “मकिंज़ी एण्ड कम्पनी” ने औरतों और उनके कार्यस्थल के बारे में एक अध्ययन किया। उन्हें पता लगा कि जब एक औरत कार्यस्थल में कोई विचार रखती है तो लोग उसको कहते हैं कि वह बहुत आक्रामक या घमंडी है (थोमस एट अल 2017)। जैन फ़ील्ड्स, मकडॉनल्ड्स यूएसए की पूर्वी प्रेज़िडेंट, कहती हैं कि उनके बॉस ने उनको नौकरी से निकाल दिया क्योंकि जैन ने कम्पनी की नीतियों के बारे में उसके ख़िलाफ़ कहा (चिर 2017)।
ये पक्षपात एक औरत के व्यवसाय को मार सकता है और यह जीवन में हमेशा दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, मैं ख़ुद ना तो राष्ट्रपति की उम्मीदवार, न ही कम्पनी की अधिकारी, न प्रभावशाली पोलिटिकल “क्राईसिस मैनेजर” हूँ। फिर भी, मैंने लिंग भेदभाव का सामना किया जब कभी मैंने नेतृत्व किया या लीडरशिप किया।
मैं अब अपने स्नातक अध्ययन के तीसरे साल में हूँ और मैं मॉक ट्राइयल टीम की प्रेज़िडेंट बनना चाहती हूँ। मॉक ट्राइयल एक क्लब है जिसमें छात्र कोर्ट में मामले पर तर्क वितर्क करते हैं। लगभग तीन साल पहले, जबसे मैं इस कार्यक्रम में शामिल हुई, मैं तभी से प्रेज़िडेंट बनना चाहती थी। इसलिए, मैंने बहुत मेहनत की, बहुत सारे मुश्किल काम किए और परिवर्तनों के लिए वकालत की, क्योंकि मैं इस टीम को सुधारना चाहती थी। मगर, अब लग रहा है कि मुझे प्रेज़िडेंट बनने का मौक़ा नहीं मिलेगा। एक लड़की को मौक़ा ना मिलना कोई नई बात नहीं है।
हमारे कार्यक्रम में सारे सदस्य प्रेज़िडेंट के लिए वोट करते हैं। यह चुनाव बहुत कड़ी प्रतिस्पर्धा वाला होता है। इस साल, मैं सबसे अनुभवी उम्मीदवार हूँ। मेरा प्रतियोगी एक छात्र है जो मुझसे कम अनुभवी है और कम योग्य भी है। उसका व्यवहार लगातार भावनात्मक रूप से अपरिपक्व और अनुचित रहा है। पिछले तीन हफ़्तों में, उसने बार-बार मुझको अपमानित करने की कोशिश की। वह मुझसे रौब से कहता है कि मेरे विचार बेकार हैं। जब मैंने अपने शिक्षक से इसके बारे में बात की, उन्होंने मुझे कहा कि मुझे सहनशीलता सीखनी पड़ेगी। उन्होंने यह भी कहा कि वह आदमी है, इसलिए ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक है।
मेरी राय अलग है। मैं मानती हूँ कि अव्यवसायिक और अनुचित व्यवहार कभी नहीं स्वीकार्य होता है। असल में, एक अच्छे नेता को हमेशा दूसरों के प्रति दयालु, संवेदनशील और मददगार होना चाहिए। जब कभी इस टीम पर औरतों ने उग्रता से व्यवहार किया या दूसरों के प्रति अनादर भाव दर्शाया तो हमारे शिक्षक ने ज़रूर उनको डाँटा और उनके व्यवहार को संशोधित करने के लिए कहा। वे टीम के पुरुषों को कभी नहीं बताते कि उनको सहनशील बनना पड़ेगा।
मुझे नहीं मालूम क्यों मेरे प्रतिद्वंद्वी को, जो एक पुरुष हैं उसके अव्यावसायिक व्यवहार को हमारा शिक्षक अनदेखा कर रहा है। सरल जवाब है : पुरुष विशेषाधिकार। आपने यह शब्द ज़रूर सुना होगा जब लोग दहेज या वेतन की बात करते हैं। इस मॉक ट्राइयल चुनाव में और 2016 चुनाव में, पुरुष विशेषाधिकार एक कपट के रूप में खेला गया। आज भी, अमेरिका में जहाँ औरतों ने इतनी सामाजिक प्रगति की, हमको फिर भी अधिकारों के लिए लड़ना पड़ता है। लोग उम्मीद करते हैं कि हम आदमी से ज़्यादा विनम्र, ज़्यादा व्यावसायिक और ज़्यादा सहनशील हों। वे हमेशा हमारी ओर देखते रहते हैं, हमारे कपड़ों और बोलने के लहज़े पर तंज कसते हैं और हमको निरंतर अनादर का सामना करना पड़ता है। इसलिए हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। “हमको आदमी से दुगना बेहतर होना पड़ेगा उनके आधे तक पहुँचने के लिए।”
इस लेख में मैं सभी आदमियों पर दोष नहीं लगा रही हूँ। वास्तव में, बहुत सारे आदमियों ने मेरी मदद की। जैसे दोस्त, नातेदार और गुरू। तथापि हर औरत जिसको मैं जानती हूँ उसके सामने ऐसी परिस्थिति आई, जिसमें उस पर दोष लगा सिर्फ़ इसलिए कि वह औरत है। मैं उन औरतों से यह कहना चाहती हूँ : अपनी योग्यता पर कभी शक नहीं कीजिए। अगर आप मेहनत करती रहेंगी तो एक दिन हम पूरी व्यवस्था को बदल सकती हैं।
उद्धरण :
कायरा, सुसन। वाई विमन आर नॉट टसी ई ओओ, अकोर्डिंग टू विमन हू ऑल्मोस्ट वर। द न्यू यॉर्क टाइम्स, द न्यू यॉर्क टाइम्स, 21 जुलाई 2017, www.newyorktimes.com/2017/07/
21/sunday-review/women-ceos-glass-ceiling.html
थॉमस, रेचल, मैरिऐन कूपर, एलन कोनार, मेगन रूनी, ऐश्ली फ़िंच, लारेयना यी, एलेक्षिस क्रिवकोविच, इरिना स्टारिकोवा, केल्सी रॉबिन्सन, और रेचल वैलेंटिनो। विमन इन द वर्कप्लेस 2017। विमन इन द वर्कप्लेस, लीन इन और मकिंज़ी एंड कम्पनी, 2017, www.womenintheworkplace.com
रीव, एल्स्पेथ। वाई डू सो मेनी पीपल हेट द साऊंड ऑफ हिलेरी Ïक्लटन्स वोईस? द न्यू रिपब्लिक, द न्यू रिपब्लिक, 1 मई 2015 www.newrepublic.com/article/121643/why-doso-many-people-hate-sound-hillary-clintons-voice
अक्षय गुप्ता
31 अक्टूबर 1995 में मिनेसोटा, अमेरिका में जन्म हुआ। ड्यूक विश्वविद्यालय में धर्म के पहले साल में एमए करते हुए फिलहाल नोर्थ कैरोलाइना में हिंदी की पढ़ाई कर रहे हैं। यह उनका दूसरा सेमेस्टर है। सामाजिक कार्यों में गहरी दिलचस्पी।
Link पोर्टरिको में मेरी पहली यात्रा
दो हजार सत्रह की सर्दी में मुझे एक मिशन ट्रिप पर पोर्टरिको जाने का अवसर मिला। वहाँ कुछ महीने पहले समुद्री तूफ़ान ने तबाही मचायी थी। हम समुद्री तूफ़ान के बाद पोर्टरिको निवासियों की मदद करने गए। मुझे इस ट्रिप के बारे में एक दोस्त से मालूम हुआ और इस ट्रिप के लिए मैं बहुत उत्साहित था, क्योंकि मुझे पसंद है दूसरों की मदद करना। मेरे दूसरे साथी अमेरिका से थे और वह भी इस ट्रिप पर जा रहे थे। जब मैं पोर्टरिको के हवाई अड्डे पर पहुँचा तो वह आदमी जो इस मिशन ट्रिप का आयोजन कर रहा था और दूसरे लोग जो इस ट्रिप में हमारी मदद करेंगे मुझे लेने के लिए आए। जैसे ही हम पोर्टरिको हवाई अड्डे से बाहर निकले, मुझे लगा कि मैं अमेरिका में हूँ क्योंकि मैंने देखा कि पोर्टरिको शहर आम अमेरिकी शहरों जैसा ही है। इस शहर में बड़ी इमारतें, दुकानें, सुपर मार्केट और दूसरी इमारतें थीं जो अमेरिका जैसी लग रही थीं। मुश्किल था यह विश्वास करना कि यहाँ कुछ दिनों पहले एक समुद्री तूफ़ान वहाँ आया था।
जब हम लोग मुख्य शहर से बाहर आये तो देखा कि समुद्री तूफ़ान की वजह से हुई क्षति कितनी गम्भीर है। काफ़ी इमारतें थीं जहाँ बिजली नहीं थी और यातायात बंद था। मंदिर जहाँ हम रहने वाले थे उसके रास्ते में सड़कें कच्ची और घुमावदार थीं। मुझे मुश्किल लग रहा था कि सब कुछ कैसे ठीक होगा। और उसी क्षण मुझे ख्याल आया कि हम मंदिर तक भी पहुँच पाएँगे या नहीं। शहर से बाहर मैंने देखा कि मलबा हर जगह पड़ा हुआ है। अंत में हमारी वैन मंदिर में सुरक्षित पहुँच गई। वहाँ पहुँचकर हमने खाना खाया और हम सोये।
सुबह हम जल्दी उठे ध्यान करने के लिए और मंदिर में सेवा करने के लिए। बाद में हमने स्वादिष्ट खाना खाया और मंदिर की मदद करनी शुरू की। हमारा पहला काम मलबे को साफ़ करना था जो मंदिर के आसपास भरा पड़ा था। अनेक पेड़ और धातु की चादरें जो मंदिर के आसपास बिखरी हुई थीं उसे हमने साफ़ किया। हमने मलबे को उठाया और दूर ले जाकर फेंक दिया। बाद में हमको एक मौक़ा मिला मंदिर की असली ख़ूबसूरती देखने का। जब मंदिर की सफ़ाई हुई हमने देखा मंदिर बहुत सुंदर है। मंदिर में तुलसी के पौधे थे और सब चीज़ें मंदिर के पास बहुत सुंदर थीं। मंदिर के चारों तरफ़ अनेक पेड़ और पुष्प थे और मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं एक जंगल में था। पुष्प और पेड़ एक बहुत सुखद सुगंध का माहौल बना रहे थे। मैं इस दृश्य को और इस भाव को अपने मन में हमेशा संजो कर रखना चाहता हूँ।
उस दिन के बाद हम पोर्टरिको के डाउन टाउन गए, दर्शनीय स्थानों की तबाही का ब्यौरा लेने के लिए। पोर्टरिको का डाउन टाउन अच्छा था। सड़कों को ईंटों से बनाया गया था और एक बड़ा क़िला शहर से घिरा था। हम घूमे और विभिन्न दुकानों में ख़रीदारी की। हम उपहारों के आदान-प्रदान करने की योजना बना रहे थे क्रिसमस के लिए और एक लड़की जो इस ट्रिप पर आयी थी उसने एक बैग और एक ओखली ख़रीदी। जबकि शहर में हम एक दोस्त के घर गए। यह घर अच्छा था क्योंकि एक खुली छत थी जहाँ हम बैठे और हमने खाना खाया।
पोर्टरिको का डाउन टाउन देखने के बाद हम मंदिर वापस आए और सोये। अगले दिन पिछले दिन के समान था। सुबह हमने ध्यान किया और मंदिर में सुबह सेवा की और नाश्ता खाया। इसके बाद मलबा साफ़ किया जो मंदिर से घिरा था, लेकिन इस दिन हम एक समुद्र तट पर गए मज़ा करने के लिए। समुद्र तट सुंदर था। पानी अच्छा गहरा नीला था और मौसम उत्तम था। हमने बहुत मज़ा किया, पानी में खेले और समुद्र तट पर घूमे।
कुछ दिनों के लिए हम द्वीप के पश्चिमी भाग पर एक खेत पर गए मदद करने के लिए। फिर हम दूसरे समुद्र तट पर गए। वहाँ पानी हल्का नीला था और यह बहुत सुंदर था। वहाँ भी ट्रेल थे जहाँ हम पर घूमे और ये बहुत सुंदर था। ट्रेल में एक चट्टान थी और चट्टान के किनारे खड़े होकर हम समुद्र देख सकते थे। पानी गहरा नीला था और बहुत सुंदर था।
समुद्र तट के बाद हम खेत में पहुँचे। खेत ख़ूबसूरत था क्योंकि इसमें बहुत सारे फल और पेड़ थे। मैंने ये फल और पेड़ पहले कभी नहीं देखे थे। हमने कुछ दिनों के लिए खेत में लोगों को मदद की। एक रात हमने बॉनफ़ायर किया और यह बहुत मज़ेदार था। हमने कहानियाँ सुनायीं और भुना हुआ आलू खाया। दूसरे दिन हमने एक मार्ग बनाया नदी के लिए। यह बहुत बड़ा काम था क्योंकि हमें पेड़ों और पौधों को साफ़ करना था और ज़मीन को धोना था। लेकिन अच्छा था क्योंकि इसके बाद हमने पानी में भी खेला।
खेत के बाद हम मंदिर वापस आए। एक शाम, हम एक नदी पर गए। वहाँ हम पानी में तैरे। जब हम तैरते हैं तो पानी में चमक उठती है। पानी में तैरने के बाद हमें एक जगह मिली जहाँ हमने खाना खाया। खाने के बाद हमने क्रिसमस उपहारों का आदान-प्रदान किया, जो हमने पहले ख़रीदा था क्योंकि उस दिन क्रिसमस था। मुझे टोफ़ियाँ और एक टी-शर्ट मिली। उसके बाद मैं कुछ और दिनों के लिए वहाँ रहा। हम सभी मंदिर की इमारतों पर सफ़ेदी कर रहे थे। पहले हमें इमारतों से सभी पुराने रंगों को उतारना था। इसके बाद हमने सभी इमारतों को पीले पैंट के साथ रंगा। हम इस ट्रिप से जल्दी वापस आए इसलिए हम सभी इमारतों को पैंट नहीं कर सकते थे। मैं चाहता था कि मैं यात्रा पर अधिक समय तक रहूँ। लेकिन यह नहीं हो सका। शायद अगली बार, मैं वहाँ ज़्यादा दिन तक रहूँ।
रिया गुप्ता
28 अप्रैल 1998 को लोरिस, साउथ केरोलाइना, में जन्म। ड्यूक विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र, वित्त और व्यवसाय का अध्ययन कर रही हैं। ड्यूक के अर्थशास्त्र छात्र संघ के कार्यकारी बोर्ड के सदस्य के रूप में भी कार्यरत। “स्टैण्डर्ड पत्रिका” के लिए एक स्टाइलिस्ट और उत्पादन सहायिका और “ड्यूक दीया” भारतीय छात्र संघ की भी सदस्य। खाली समय में परिवार और दोस्तों के साथ यात्रा तथा बॉलीवुड फिल्में देखना पसंद करती हैं।
ड्यूक विश्वविद्यालय में व्यापार की पढ़ाई(link)
हॉर्वर्ड बिजनेस स्कूल और वार्टन के बारे में सभी लोग जानते हैं लेकिन बहुत से लोग अभी भी ड्यूक विश्वविद्यालय से परिचित नहीं है।
ड्यूक अमेरिका का एक बहुत प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है। ड्यूक हर बार देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है और हर साल दुनिया भर के हज़ारों छात्र यहाँ पढ़ने के लिए आवेदन करते हैं। लेकिन उन में से सिर्फ पांच-छह प्रतिशत छात्रों को ही यहाँ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
ड्यूक का बिजनेस स्कूल बहुत प्रसिद्ध है और उसे फूक्वा स्कूल ऑफ बिजनेस कहते हैं। मेलिंडा गेट्स और एप्पल कंपनी के सीईओ टिम कुक जैसे विख्यात लोग भी इसी विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। इसमें वित्त और व्यापार के लिए एक अलग अंडरग्रेजुएट डिग्री का कार्यक्रम भी है। ड्यूक इस कार्यक्रम में बहुत अधिक संसाधनों और धन का निवेश करता है। अर्थशास्त्र एक ऐसा विषय है जो एक सफल व्यवसाय के लिए रणनीतियां सिखाता है और दुनिया के शेयर बाजार के बारे में समझाता है। वॉल स्ट्रीट जर्नल की रैंकिंग के अनुसार, ड्यूक में अर्थशास्त्र की शिक्षा का मुक़ाबला सिर्फ हॉर्वर्ड ही कर सकता है। इसीलिए कई छात्र अर्थशास्त्र को अपने मेजर के रूप में चुनते हैं।
पिछले पाँच सालों से ड्यूक अर्थशास्त्र के ग्रैजूएट विद्यार्थियों में से औसतन अस्सी प्रतिशत विद्यार्थियों को अच्छी नौकरियाँ मिली हैं जिसमें से चौंसठ प्रतिशत वित्त क्षेत्र में, सोलह प्रतिशत व्यवसाय और प्रबंधन क्षेत्र में और सात प्रतिशत व्यवसायिक सेवाओं जैसे लेखांकन और मार्केटिंग में शामिल हैं। हाल ही में, राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों की डॉक्ट्रेट डिग्री प्रदान करने वालों की शृंखला में इसे यू.एस. न्यूज़ और वल्र्ड रिपोर्ट ने नवें स्थान पर रखा है और सर्वश्रेष्ठ अंडरग्रेजुएट शिक्षण के लिए इसने येल के साथ दसवां स्थान बनाया है।
इसके अलावा, ड्यूक का नया इनोवेशन और एंटर-प्रेन्योरशिप सर्टिफिकेट छात्रों को नए व्यवसायों के मूल सिद्धांतों को सिखाने का प्रशिक्षण देता है। किसी भी नए व्यवसाय के लिए टीम वर्क और विकास के मूल सिद्धांतों का अध्ययन करना ज़रूरी होता है। “ड्यूक इन सिलिकॉन वैली” इस विभाग द्वारा पेश किया गया एक कार्यक्रम है जो छात्रों को ऐप्पल, टेस्ला और नेटफ्लिक्स जैसी कई प्रमुख तकनीकी कंपनियों में शिक्षण के लिए ले जाता है।
छात्र अलग से वित्त की विशेष पढ़ाई कर सकते हैं और विभिन्न विषयों के बारे में जानने के लिए कुछ अलग दिलचस्प विषय भी चुन सकते हैं। यहाँ के सभी प्रोफ़ेसरों ने वित्त के क्षेत्र में काम भी किया है।
वास्तव में, ड्यूक इन न्यूयॉर्क, ड्यूक इन लंदन और ड्यूक इन शिकागो जैसे कार्यक्रम लंबे समय से चल रहे हैं जहां छात्र वित्तीय बाजारों को समझने के लिए दुनिया के प्रमुख वित्तीय केंद्रों में पढ़ सकते हैं। छात्रों को गोल्डमैन सैक्स, मॉर्गन स्टेनली, जे.पी. मॉर्गन और यहां तक कि न्यूयॉर्क टाइम्स जैसी प्रमुख कंपनियों और बैंकों की साइट और नेटवर्किंग कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर मिलता है।
चूंकि मैं खुद ड्यूक के न्यूयॉर्क कार्यक्रम में शामिल हुई थी, इसलिए मैं व्यक्तिगत रूप से कह सकती हूं कि ये कार्यक्रम बहुत अच्छे हैं। ये वास्तव में हर छात्र को वित्त और अर्थव्यवस्था की दुनिया को विकसित करने और पूरी तरह से समझने की समझ देते हैं। किसी भी स्नातक को आगे बढ़ाने के लिए यह एक शानदार अनुभव है। इन व्यावसायिक हितों को अन्य विषयों जैसे कंप्यूटर विज्ञान, इंजीनियरिंग, गणित, सांख्यिकी, दृश्य मीडिया अध्ययन या यहां तक कि भाषाओं के साथ भी जोड़ा जा सकता है।
ड्यूक व्यवसाय, वित्त और अर्थशास्त्र सीखने का एक शानदार अवसर प्रदान करता है। लगभग पन्द्रह हज़ार छात्रों का यह विश्वविद्यालय विविधता से भरपूर है और यहाँ पर पूरी दुनिया से छात्र पढ़ने के लिए आते हैं। यह विश्वविद्यालय छात्रों को पूरे संसार में अपना मक़ाम बनाने के लिए तैयार करता है।

कहानी: अंतिम परीक्षा (link)

शर्ली माथुर
कब आएगा वह दिन?
वह दिन जब एक आदमी की साँस अकारण
रोकी नहीं जाएगी पुलिस के हाथों से
सिर्फ उसके रंग और रूप की वजह से
जैसे जोर्ज फ्लोईड के साथ हुआ था
कब आएगा वह दिन?
जब एक मासूम
पंद्रह साल की बच्ची की हत्या नहीं होगी
सिर्फ उसके रंग और रूप के कारण
जब वह पुलिस से मदद मांगती है
जैसे मखाया ब्रायिंट के साथ हुआ था
कब आएगा वह दिन?
जब एक औरत से उसकी जिंदगी
उसकी नींद में नहीं छीन ली जाएगी
सिर्फ उसके काली होने के कारण
जैसे ब्रीयौना टेलर के साथ हुआ था
कब आएगा वह दिन?
जब एक आदमी के क्रोध
और उसकी घृणा की वजह से
आठ मासूम महिलाओं की हत्या
बेकार में नहीं होगी
जैसे इस साल अटलॉन्टा में हुआ था
आशा करती हूं
कि जब भी वह दिन आए
मैं जिंदा रहूँ
उसे देखने के लिए
काश! जल्दी ही आए वह दिन।
सूरज और चाँद का मिलन
चाँद हमेशा आसमान में रहता है
लेकिन सूरज की धूप उसे
बाहर आने नहीं देती
पर अंधेरी रातों में
जब सूरज का प्रकाश नहीं मिलता
सिर्फ़ चाँद की हल्की रोशनी
हमें नज़र आती
लेकिन ऐसे भी रात आती है
जिसमें चाँद भी प्रगट नहीं होता
और हम बिन रोशनी के
अकेले अंधकार में भटकते हैं
सबसे खूबसूरत पल वे होते हैं
जब आसमान में
सूरज की किरणों चाँद के
साथ मिलती है।
———————————————————————————–
Link कहानी: आशा
शर्ली माथुर

प्रथमेश पटेल
नॉर्थ कैरोलाइना में जन्म, माता-पिता भारतवंशी हैं। ड्यूक विश्वविद्यालय में कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई में चौथा वर्ष और हिंदी की कक्षा में द्वितीय वर्ष। प्रथमेश सॉफ्टवेयर अभियान्त्रिकी में काम करता है और वह कैलिफ़ोर्निया में काम करने वाला है।
Link मैसूर का शक्तिशाली शासक टीपू सुल्तान
मुझे हमेशा भारत के इतिहास में रुचि रही है, लेकिन ड्यूक विश्वविद्यालय में ‘साम्राज्यों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ कक्षा लेने के बाद मेरी रुचि इसमें और बढ़ गई। इस कक्षा में मैंने दुनिया भर के आधुनिक साम्राज्यों और उनके तरीकों, तकनीकी नवाचार और युद्ध के तरीकों के बारे में सीखा। विशेष रूप से भारत के संदर्भ में, मैंने मुगल साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में सीखा। मुझे भारत के ब्रिटिश उपनिवेशीकरण के बारे में जानने में विशेष रूप से रुचि थी क्योंकि मैं हमेशा सोचता था कि अगर अंग्रेजों ने वहाँ शासन नहीं किया होता तो आज का भारत कैसा दिखता। मैं यह भी सोचता था कि इतने सारे राज्यों के खिलाफ ब्रिटिश भारत को कैसे उपनिवेश बनाने में सक्षम हुए। जब मैं अंग्रेजों के शासन करने के तरीके के बारे में कक्षा में शोध कर रहा था, तो मुझे दिलचस्प साक्ष्य मिले जिससे पता चला कि टीपू सुल्तान अंग्रेजों के खिलाफ रक्षा की अंतिम पंक्ति में हो सकते थे। टीपू सुल्तान ‘ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी’ का सबसे मजबूत दुश्मन था। दो प्रमुख शक्तियों के बीच सबसे गहन युद्ध था तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध 1789 में और इस युद्ध में टीपू सुल्तान पर ईस्ट इंडिया कंपनी की अंतिम जीत, भारतीय उपमहाद्वीप के ब्रिटिश उपनिवेश में न केवल एक प्रमुख मोड़ था, बल्कि इससे ब्रिटिश साम्राज्य का दायरा भी सिमट गया। इस लेख में मैं इस युद्ध के लिए अग्रणी राजनीतिक माहौल, टीपू सुल्तान की अद्भुत सैन्य शक्ति, रॉकेट का आविष्कार और टीपू के युद्ध का विश्लेषण करूंगा।
टीपू और आंग्ल-मैसूर युद्ध
टीपू और उनके पिता हैदर अली ने मैसूर के शासकों के रूप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ चार अलग-अलग युद्ध लड़े। यह चार संघर्ष आंग्ल-मैसूर युद्धों के रूप में जाने जाते हैं। हैदर अली ने पहले दो युद्धों में अंग्रेजों के खिलाफ मैसूर का नेतृत्व किया। द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध भारत में उस समय की सबसे बड़ी ब्रिटिश हार के साथ समाप्त हुआ और उसके तुरंत बाद हैदर अली की कैंसर से मृत्यु हो गई। द्वितीय मैसूर युद्ध के बाद टीपू ने शांति समझौता किया जो अपने आप में अद्वितीय था। पहली बार इस समझौते में, ब्रिटेन ने बहुत नुकसान उठाया। 1782 में हैदर की मृत्यु के बाद, टीपू सुल्तान राजा बन गया। टीपू एक बुद्धिमान और रणनीतिक शासक था। टीपू को चौथे युद्ध के दौरान मार दिया गया लेकिन दो शक्तियों के बीच सबसे गहन युद्ध तृतीय मैसूर युद्ध था। तृतीय मैसूर युद्ध के परिणामस्वरूप टीपू सुल्तान अपने आधे क्षेत्रों को गंवा बैठा। ये प्रदेश ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, हैदराबाद के निज़ाम और मराठों को दिए गए थे।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का आरम्भ
अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया भारत में एक प्रमुख सैन्य शक्ति नहीं थी। लेकिन जैसे जैसे मुगल शक्ति कम हो रही थी और राजनीतिक माहौल अस्थिर होता जा रहा था वैसे वैसे कंपनी ने अपनी व्यापारिक बस्तियों को मजबूत करने के लिए अपनी सेना को मजबूत करने का फैसला किया। जैसे-जैसे अंग्रेज मजबूत होते गए, स्थानीय शासकों ने युद्धों में कंपनी की मदद लेनी शुरू की। समय के साथ अंग्रेजों ने अधिक से अधिक सैनिकों को लाये। जैसे-जैसे अंग्रेज मजबूत होते गए, उन्होंने मैसूर को खतरा माना।
टीपू का सम्मान और टीपू की शक्ति
अंग्रेजों के कुछ उच्च अधिकारियों का टीपू के मैसूर के प्रति बहुत सम्मान था। मेजर अलेक्जेंडर डिरोम कहते हैं, “उसके पास बहुत अनुशासित फौजें हैं और टीपू दुर्जेय है। वह अपने लोगों का ख्याल रखता है और अपने दुश्मनों को नष्ट कर देता है। मद्रास और बॉम्बे से हमारे राजस्व के साथ, हम उनके खिलाफ बचाव नहीं कर सकते।” (Dirom, Alexander). लेफ्टिनेंट रोडेरिक मैकेंजी कहते हैं, “टीपू के विशाल क्षेत्रों और निवास के साथ उन्होंने हिंदुस्तान की मूल शक्तियों के बीच राजनीतिक संतुलन में सारी शक्ति समेटी थी।” टीपू सुल्तान का इतना सम्मान किया जाता था कि नेपोलियन बोनापार्ट उसके साथ गठबंधन चाहते थे। अपने शोध से, मेरा मानना है कि टीपू के पास एक शानदार दिमाग था। मैसूर का भारत में सबसे बड़ा योगदान था कि वहाँ लोगों को सबसे ज़्यादा तनख़्वाह मिलती थी क्योंकि वहाँ की अर्थव्यवस्था मजबूत थी। टीपू की मैसूर की तकनीक और सेना अपने रॉकेटों के कारण भी शक्तिशाली थी। उन्होंने युद्ध में सबसे पहले लोहे के रॉकेट का इस्तेमाल किया। अंग्रेजों ने बाद में रॉकेट बनाने के लिए टीपू के रॉकेट डिजाइन का नकल किया।
हिंदू मुस्लिम संबंध और एक विदेशी शक्ति
अपने राज्य के भीतर टीपू ने स्वयं मुस्लिम होने के बावजूद कई हिंदू मंदिरों को दान दिया। उन्होंने अपनी सेना में हिंदुओं को भी अधिकारी नियुक्त किया। दुर्भाग्य से ब्रिटिश लेखकों द्वारा लिखा गया कि टीपू सुल्तान धार्मिक सहिष्णुता के मामले में अपने लोगों के साथ क्रूर था। टीपू को हराने के लिए, अंग्रेजों ने पाया कि उन्हें मराठों और हैदराबाद के निज़ाम के साथ गठबंधन करना पड़ेगा। मराठा और निज़ाम दोनों टीपू के दुश्मन थे, खासकर क्योंकि दोनों हिंदू राज्य थे। अंग्रेज जानते थे कि मराठा एक बार एक मजबूत शक्ति थे, लेकिन उनकी शक्ति अब मैसूर के बराबर नहीं है। हैदराबाद के निज़ाम और मराठा जानते थे कि अगर वे टीपू को एक साथ हरा देते हैं, तो अंग्रेज़ भारत में सबसे बड़ा खतरा बन जाएंगे। मराठों और निज़ाम के बीच एक पत्र में लिखा गया था कि, “अगर हम अंग्रेजों का सहयोग करते हैं, तो हम अपने क्षेत्रों को फिर से हासिल कर सकेंगे। लेकिन पूरे भारत में अंग्रेजों के पास बहुत राज्य हैं और वे अपनी शक्ति से हमारे लिए खतरा बन जाएंगे।” परिणामस्वरूप मराठों और निज़ाम ने फैसला लिया कि मुस्लिम दुश्मन को हराने के लिए ब्रिटिश के साथ सहयोग करना ज़्यादा फायदेमंद होगा। क्योंकि वे विदेशी शक्ति पर ज़्यादा भरोसा करते थे बजाय हिंदुस्तानी मुसलमान के।
अंग्रेज द्वितीय मैसूर युद्ध के बाद अपनी संधि को समाप्त करना चाहते थे ताकि वे अपने गौरव को पुनः स्थापित कर सकें। टीपू का बहुत सम्मान किया गया, अंग्रेजों ने ब्रिटिशों का नेतृत्व करने के लिए चार्ल्स कॉर्नवॉलिस को बुलाया। कार्नवालिस ने ही अमेरिका में क्रांतिकारी युद्ध में अंग्रेजों का नेतृत्व किया था। कॉर्नवॉलिस ने टीपू के साथ युद्ध की घोषणा करने से पूर्व इंतज़ार किया कि टीपू पहले किसी ब्रिटिश सहयोगी पर हमला करे। त्रावणकोर का राजा जो एक ब्रिटिश सहयोगी था उसने दो डच किले खरीदे। मद्रास के ब्रिटिश गवर्नर ने किले को खरीदने के खिलाफ राजा को चेतावनी दी थी। ब्रिटिश गवर्नर ने सोचा कि टीपू इस खरीद के कारण हमला कर सकता है क्योंकि वे किले टीपू के राज्य की सीमा पर थे। इससे टीपू को खतरा हो सकता था। 29 दिसंबर, 1789 को टीपू सुल्तान ने त्रावणकोर पर हमला किया। यह कॉर्नवॉलिस का मौका था टीपू पर युद्ध की घोषणा करने के लिए क्योंकि त्रावणकोर का राजा एक ब्रिटिश सहयोगी था।
युद्ध करीब था और दोनों पक्षों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी। स्पष्ट समय और रणनीतिक योजना कार्नवालिस टीपू को हराने में सक्षम थीं। अंत में, ब्रिटिश, मराठा और निज़ाम की संयुक्त ताकत बहुत अधिक थी। टीपू पराजित हुआ और उसके आधे क्षेत्रों को छीन लिया गया। इस युद्ध में टीपू के हारने के बाद, अंग्रेजों का मानना था कि भारत में कोई बड़ी शक्ति नहीं बची जो उन्हें रोक सके। कुछ समय बाद, भारत ब्रिटिश साम्राज्य का ताज बन गया।
उद्धरण:
● डिरॉम, अलेक्जेंडर 1830। 1985. “भारत में अभियान का एक वर्णन, जिसने 1792 में टीपू सुल्तान के साथ युद्ध को समाप्त कर दिया।” 1 AES पुनर्मुद्रण। नई दिल्ली: एशियन एजुकेशनल सर्विसेज
● मैकेंजी, रोडरिक,। 1793। “टीपू सुल्तान के साथ युद्ध का एक स्केच। दो खंडों में। रोडरिक मैक द्वारा।” कलकत्ता: लेखक के लिए छपा,। https://searchworks.stanford.edu/view/8049959।
● अंबिका, पी। 1981। “तृतीय एंग्लो-मैसूर युद्ध और सेरिंगपताम की संधि के प्रमुख कार्यक्रम” जर्नल ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री 59 (1): 25980

संहिता सुनकरा
संहिता शार्लेट, नार्थ कैरोलिना से हैं। माता-पिता आंध्र प्रदेश से हैं। ड्यूक विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र और कंप्यूटर विज्ञान पढ़ती हैं। हिंदी की द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं। यात्रा करना पसंद है और अपनी यात्रा का अनुभव साझा करना भी पसंद है। भविष्य में अर्थशास्त्र में काम करना चाहती हैं।
Link हमारा गाँव
हर तीन साल में मैं और मेरा परिवार भारत जाते हैं। हर बार हम गाँव में अपनी दादी के घर जाते हैं। मेरी चाची मेरी बहन और मुझे खेलने के लिए कृष्णा नदी के पास रेत में ले जाती हैं। एक बार जब हम रेत पर जा रही थीं एक आदमी ने हमें रोका और उसने मेरी चाची से पूछा: “क्या ये शिवाजी के बच्चे हैं?” मेरी चाची ने कहा “हाँ।” तब उसने कहा “शर्म की बात है कि उनका कोई बेटा नहीं है।” मेरे पिताजी इकलौते बेटे हैं इसलिए गाँव में सब लोग इस बात से निराश थे कि मेरे पिताजी की दो बेटियाँ हैं और कोई बेटा नहीं है।
ऐसी सोच के कारण विदेशी लोग सोचते हैं कि भारत पिछड़ा है। विदेशी लोग सोचते हैं कि भारत गरीबी और लिंगभेद से भरा है। लेकिन पूरा भारत सेक्सिस्ट नहीं है। मेरी चाची महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रही हैं। उन्होंने बहुत प्रगति की है और भारत में सिर्फ गरीबी ही नहीं है बल्कि उस से ज्यादा भी कुछ है। आज मैं यह बताना चाहती हूँ कि कैसे विदेशी समाचार पत्र भारत के साथ न्याय नहीं करते। भारत जटिल है, और सुंदर भागों पर भी ध्यान देने को जरूरत है।
एक बार जब हम गाँव में थे मेरी दादी के घर के पास एक लड़ाई हो रही थी। गाँव के लोग रेत के ट्रकों पर चिल्ला रहे थे: “चले जाओ, यहाँ रेत से साँस लेने में मुश्किल हो रही है और रेत सड़कों को बर्बाद कर रहे हैं!” रेत के ट्रक चला रहे लोगों ने कहा: “हमें रेत बेचने और जीविकोपार्जन के लिए यहाँ ड्राइव करना पड़ता है।” इस लड़ाई के दौरान मेरी चाची और मैं अपने पोर्च पर बैठ गए और उन्होंने ट्रकवालों को समझाया: “प्रत्येक रेत ट्रक बारह लोगों के समान काम कर सकता है। यह रेत कंपनी की मदद करता है, लेकिन यह श्रमिकों को नुकसान पहुँचाता है।”
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मेरी दादी लड़ाई देख रही हैं |
इसने मुझे आर्थिक विकास के बारे में सिखाया। विकसित देश हमेशा सोचते हैं कि औद्योगिकीकरण अच्छा है। लेकिन औद्योगिकीकरण हमेशा नहीं ठीक है। कभी कभी औद्योगिकीकरण वातावरण को नुकसान पहुँचाता है इसलिए औद्योगिकीकरण से भारत का धीमा होना जरूरी नहीं है। कुछ लोग इसे भारत को अपने राष्ट्र की रक्षा के रूप में देख सकते हैं।
औद्योगिकीकरण के बिना गाँव अधिक शांतिपूर्ण और संपन्न हैं। प्रकृति गाँव में पनप रही है। गाँव में हर रात मैं और मेरी छोटी बहन घर की छत पर बैठकर गाय के झुंड को वापस जाते हुए देखते थे। सूरज उनके पैरों के ठीक पीछे दिखता था। आकाश मेरे हाथों पर मेंहदी की तरह गहरा नारंगी होता था। जब मैं साँस लेती थी तो चमेली की खुशबू आती थी। फिर हम नीचे आते थे और कपड़े सुखाने की रस्सी के पास कपड़ों को पीछे खेलते थे।
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मैं, मेरी बहन और दादी छत पर बैठे हैं |
रात में मेरी बहन, पिताजी और मैं पड़ोसियों को मिलते थे। सबके घर में नारियल का पेड़ और करी पत्ते के पौधे थे। जब हम पड़ोसियों से बात करते थे उसकी आँखों में चमक होती थी सब एक दूसरे की मदद करते थे और मैत्रीपूर्ण ढ़ंग से रहते थे। सबके घर के बाहर सुन्दर रंगोली होती और सब लोग बहुत खुशी से सभी का स्वागत करते हैं। यही गंगा-जमुनी तहजीब भारत की ताकत है।अमेरिका में बेहतर अर्थव्यवस्था हो सकती है; लेकिन भारत के गाँव के लोगों की सामाजिक एकता अधिक दिलचस्प है।
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पापविनासनाम गाँव का दृश्य |
अस्पताल का दौरा
कॉलेज की एक परियोजना के तहत में भारत वापस गई। यह परियोजना ड्यूक द्वारा आयोजित की गई थी। एक दिन हमने ताज महल की यात्रा करने की योजना बनाई। लेकिन हवाई अड्डे के लिए हमारी टैक्सी आने से पहले मुझे उल्टी आने वाली थी। मतलब मेरी तबियत ख़राब थी। मैंने अपने दोस्तों को मेरे बिना जाने के लिए कहा।
मेरा मेज़बान परिवार मुझे अस्पताल ले गया। अस्पताल बहुत छोटा था। अस्पताल में सिर्फ एक कमरा था। डॉक्टर ने मेरे हाथ की नाड़ी देखी। परीक्षण करके डॉक्टर ने नर्स से कहा कि “इसको इंजेक्शन दे दो।” मुझे कुछ बोलने की या इंजेक्शन के लिए मना करने की ताकत नहीं थी। इसलिए नर्स से इंजेक्शन लगवा लिया। फिर डॉक्टर ने दवाई पुराने कागज़ में पैक करके मुझे दी। कागज़ में पाँच अलग-अलग रंग और अलग-अलग आकार की दवाई थीं। डॉक्टर ने कहा पॉंचों गोलियाँ एक साथ ले लो। उन्होंने मुझे गोलियों के नाम या वे किसलिए थे यह नहीं बताया। लेकिन दवाई लेने के एक दिन के बाद मैं बिलकुल ठीक हो गई।
अगर भारत अमेरिका की तरह होता तो ऐसा कभी नहीं होता। यह अच्छी और बुरी दोनों बात है। गोलियाँ और इंजेक्शन बहुत खतरनाक हो सकता था। अमेरिका में मैंने बिना डॉक्टर के पर्चे और औपचारिक फार्मेसी के दवा नहीं ली होगी। लेकिन गोलियाँ ठीक थीं और मैं ठीक हो गई। भले ही वे अजीब थीं लेकिन दवाएँ खराब नहीं थीं। अगर मैं अमेरिका में होती तो मुझे कड़े नियमों के कारण जल्दी से जल्दी मदद नहीं मिलती। इसलिए अमेरिका की स्वास्थ्य प्रणाली बेहतर नहीं है। सब कुछ सफ़ेद और काला नहीं होता।
ताज महल
मैं बाद में ताजमहल देखने गई। जब मैं गई तो मुझे सबसे ज्यादा जो आश्चर्य हुआ वह उसकी सुंदरता नहीं थी बल्कि टिकट का सस्ता होना था। भारतीयों के लिए शुल्क लगभग एक डॉलर है और विदेशियों के लिए शुल्क पंद्रह डॉलर थे। ये सस्ते शुल्क एक स्मार्ट व्यवसाय नहीं है। ताज महल में आसानी से अधिक पैसे ले सकते हैं। अमेरिका में थॉमस जेफरसन के घर जाने का खर्च तीस डॉलर है और यह केवल 150 साल पुराना है। लेकिन भारत अन्य देशों की तरह अपनी सुंदरता से लाभ कमाने की कोशिश नहीं कर रहा है। भारत की प्राथमिकता सौंदर्य को देखने के लिए अधिक से अधिक लोगों का स्वागत करना है। यह एक शुद्ध मकसद है।
भारत के बारे में विदेशियों का दृष्टिकोण
अपनी परियोजना के दौरान मैं दिल्ली में अपने चचेरे भाई से भी मिली। जब हम एक साथ बैठे थे उसने मुझसे मेरे प्रोजेक्ट के बारे में पूछा। मैंने उससे कहा “हमारे विश्वविद्यालय ने हमें एक NGO की मदद करने के लिए भेजा जो गरीबी की समस्या को हल करने पर काम करते हैं।” मेरे चचेरे भाई ने कहा “लेकिन उन्होंने आपको भारत क्यों भेजा? अमेरिका में भी गरीबी और भुखमरी है।” मैंने उससे कहा “हाँ लेकिन वे चाहते थे कि हम भारत में गरीबी के बारे में जानें।” मेरे चचेरे भाई ने कहा “उन्होंने आपको हमारी गरीबी के बारे में जानने के लिए ही क्यों भेजा? क्यों नहीं हमारे बुद्धिमान शिक्षकों और प्रतिभाशाली विचारकों के बारे में जानने के लिए भेजा?”
फिर मैंने इसके बारे में सोचना शुरू कर दिया। भारत में गरीबी से अलावा भी बहुत कुछ है। विकसित देश केवल भारत की कमियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि कई चीज़ें हैं जिससे भारत अन्य देशों की तुलना में बेहतर है। हमें देशों के बारे में बोलने से पहले अधिक खुले दिमाग के होने की जरूरत है।
मेरे चचेरे भाई ने मुझे लंदन के अपने सहपाठी के बारे में बताया। जब उसका सहपाठी भारत आया तो उसके सहपाठी ने पूछा “क्या हम झुग्गियों को देख सकते हैं?” मेरे चचेरे भाई ने कहा “ठीक है लेकिन कई अन्य चीज़ें भी हम देख सकते हैं। उदाहरण के लिए हमारे संग्रहालय, हमारे पुरालेख, हमारी कला।” जैसा कि मेरा चचेरा भाई मुझे बता रहा था मैंने उसके चेहरे पर उदासी देखी।
चूंकि समाचार केवल बुरी चीजों पर केंद्रित होता है हमारा मानना है कि वे बुरी चीजें पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती हैं। भारत के बारे में हमारी सोच बदलने का समय आ गया है। भारत और अन्य विकासशील देशों को उनकी सुंदरता के लिए याद किया जाना चाहिए न कि उनकी ख़ामियों के लिए।
लंबी यात्रा: नवीन सिवा
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[वापस एरोप्लेन में] |
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[कई घंटे बाद] |